माज और देश के जिन स्वयंभू ठेकेदारों को इस सरकार ने हिंसा का ठेका दिया
है, उन्हें यह स्पष्ट संकेत दे रही है कि उनके ऊपर कोई क़ानूनी आंच नहीं
आने दी जाएगी और उन्हें आगे बढ़ने की पूरी इजाज़त है. भीमा-कोरेगांव समेत
कई मामलों में तो पीड़ितों पर ही आरोप लगाए जा रहे हैं.
दूसरा, इनका
लक्ष्य साफ़ है कि कुछ ही तरह के हिंदुत्व समर्थक दलित और आदिवासी
कार्यकर्ता काम करते रहें और बाकियों को दबा दिया जाए. बीजेपी दलित और
आदिवासी वोटों के लिए बेचैन हो चुकी है. उन्होंने दलित राष्ट्रपति बनाकर,
एससी-एसटी एक्ट को कमज़ोर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलटकर और राजा सुहेलदेव जैसे दलित हीरो को उभारकर दलितों के क़रीब आने की कोशिश की है.
लेकिन
आप अगर सरकारी दलित नहीं हैं तो आपको दबा दिया जाएगा- उत्तर प्रदेश की भीम
आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद की तरह, गुजरात के जिग्नेश मेवाणी और ऊना के
दलितों की तरह या फिर नव-ब्राह्मणवादी पेशवाई के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए
यल्गार परिषद में हिस्सा लेने वाले दलितों की तरह.
जहां तक
आदिवासियों की बात है, बीजेपी वनवासी कल्याण परिषद और आरएसएस के अन्य
मोर्चों पर आश्रित है. सिर्फ यही ऐसे एनजीओ हैं जिन्हें आदिवासी इलाक़ों
में खुलकर काम करने की इजाज़त है.
सरकार इन गिरफ़्तारियों से जिस
मक़सद को हासिल करना चाहती है, वह है उन आम भारतीयों को प्रभावित करना,
जिनकी राष्ट्रवाद स्वाभाविक भावना है. भले ही उनका राष्ट्रवाद
अंधराष्ट्रवाद या हिंसक राष्ट्रवाद नहीं है, जैसा कि बीजेपी चाहती है. मगर
राष्ट्रविरोधी, टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल जैसी शब्दावलियों से
सरकार मानवाधिकार और विचार भिन्नता को अवैध बना देना चाहती है.
जिन लोगों ने उमर उन्हें यकीन था कि वे कोई महान कार्य कर रहे हैं. क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा की तरह. इसी तरह से जिस यात्री ने विमान में कन्हैया कुमार का गला घोंटने की कोशिश की, वह बीजेपी का समर्थक था जिसका जुनून उबाल मार रहा था.
दस साल पहले माओवादियों के बारे में राय यह थी कि वे दिग्भ्रमित
आदर्शवादी हैं. मगर एक दशक तक पुलिस द्वारा किया गया दुष्प्रचार उन्हें
अछूत बनाने में कामयाब रहा है. अगर यह सिलसिला जारी रहा तो मानवाधिकार
कार्यकर्ताओं के साथ भी यही होगा.
हाल की गिरफ़्तारियां नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर किए जा रहे नरसंहार से भी ध्यान बंटाती हैं. 6 अगस्त 2015 को सुरक्षाबलों ने छत्तीसगढ़ के सुकमा में नुल्कातोंग गांव में बच्चों समेत 15 आदिवासी ग्रामीणों पर गोली चला दी.
पत्रकारों, वकीलों, शोधकर्ताओं और अन्य लोगों को यहां से दूर रखकर सरकार
यहां पर माइनिंग और कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण करने को आसान बना रही
है.
पांचवां कारण है- नरेंद्र मोदी के लिए सहानुभूति बटोरना. यह संयोग ही है कि जब कभी उनके लिए हालात मुश्किल भरे होने लगते हैं, उनकी हत्या की साज़िश से पर्दा उठ जाता है. ह कथित हत्या की साज़िश दिखाती है कि या तो पुलिस और गृह मंत्रालय अपना काम ढंग से नहीं कर रहे या फिर मन से नहीं कर रहे जो उन्हें ये पहले यक़ीन
करने लायक नहीं लग रही.
यह पुलिस का ही केस है कि उसने 17 अप्रैल
2018 को रोना विल्सन के घर से यह फंसाने वाला दस्तावेज़ हासिल किया था. फिर
रोना और अन्य की गिरफ़्तारी छह जून को क्यों हुई, जबकि मोदी की सुरक्षा पर
राजनाध सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक 11 जून को हुई.
इन सब बातों
को देखें तो पुलिस और बीजीपी की सरकार को ख़ुद को और देश को शर्मिंदा करने
से बाज़ आना चाहिए और सभी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को तुरंत रिहा कर देना चाहिए.
No comments:
Post a Comment