Thursday, August 30, 2018

कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ पुणे कोर्ट में पुलिस ने क्या दलीलें दीं

पुणे पुलिस ने भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा की जांच के सिलसिले में देश के अलग-अलग हिस्सों से मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया है. कुछ को हिरासत में लिया गया तो कुछ के घरों पर छापे मारे गए.
पुणे पुलिस की इस कार्रवाई की आलोचना भी हो रही है, लेकिन पुलिस ने अदालत में इन गिरफ़्तारियों को सही ठहराते हुई कई दलीलें पेश कीं.
फ़िलहाल पुणे की एक अदालत ने गिरफ़्तार किए गए लोगों में से तीन को घर में नज़रबंद करने का आदेश दिया है. वहीं सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा को भी नज़रबंद रखने का आदेश दिया गया है.
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा था मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को न्यायिक या पुलिस हिरासत में नहीं रखा जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पुणे सेशंस कोर्ट के एडिशनल जज केडी वंदाने ने बुधवार शाम को वरवर राव, अरुण फ़रेरा और वरनॉन गोंज़ाल्विस को नज़रबंदी में रहने का आदेश दिया.
अदालत में पुणे पुलिस का पक्ष रखने वाली स्पेशल पब्लिक प्रोसीक्यूटर (सरकारी वकील) उज्ज्वला पवार ने कहा कि 'तीनों अभियुक्त (वरवर राव, अरुण फ़रेरा और वरनॉन गोंज़ाल्विस) प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) के सक्रिय सदस्य हैं और उन्हें हिरासत में रखा जाना ज़रूरी है क्योंकि उनके तार पुणे में 31 दिसंबर, 2017 को यलगार परिषद की आड़ में साज़िश रचने से जुड़े हुए हैं.'
वहीं, पुणे पुलिस ने दावा किया कि इसी मामले में जून में हुई गिरफ़्तारियों के दौरान उन्हें कुछ चिट्ठियां और काग़जात मिले थे जिनमें वरवर राव, अरुण फ़रेरा और वरनॉन गोंज़ाल्विस के नामों का ज़िक्र किया गया था.
पुलिस का कहना था कि पांचों कार्यकर्ताओं की बैठक ने भीमा-कोरेगांव में हुई जातिगत हिंसा को भड़काया. हालांकि मंगलवार को गिरफ़्तार किए गए लोगों के बीच किसी भी तरह की चिट्ठी का आदान-प्रदान नहीं हुआ.
सरकारी वकील उज्ज्वला पवार के मुताबिक जून में सुरेंद्र गाडलिंग, रोना विल्सन, महेश राउत और सुधीर धावले के यहां छापों के दौरान कुछ चिट्ठियां मिली थीं जिनमें वरवर राव, अरुण फ़रेरा और वरनॉन गोंज़ाल्विस के नाम थे.
उज्ज्वला पवार ने कहा, "वरवर राव अतिवादी संस्थाओँ के लिए नेपाल और मणिपुर से हथियार खरीदने के लिए ज़िम्मेदार हैं. वहीं फ़रेरा और गोंज़ाल्विस छात्र संस्थाओं पर नज़र रखते थे, उन्हें रिक्रूट करते थे और नक्सली इलाकों में ट्रेनिंग के लिए भेजते थे."वार ने कहा, "ये लोग ऑल इंडिया यूनाइटेड फ़्रंट नाम की संस्था बना रहे हैं जिसे ये एंटी फ़ांसिस्ट फ़्रंट कह रहे हैं. ये किसी माओवादी संस्था के फ़्रंट की तरह काम करेगी. यलगार परिषद जैसे सुधीर धावले द्वारा आयोजित क्रार्यक्रम इसी कोशिश का हिस्सा हैं. इसलिए मामले की जांच करना और अभियुक्तों को पुलिस हिरासत में रखना ज़रूरी है."
पुलिस ने दावा किया कि यलगार परिषद वैसे तो कबीर कला मंच की तरफ़ से आयोजित किया गया था जोकि पुणे का एक सांस्कृतिक समूह है, लेकिन इसका असली मक़सद शहरी इलाकों में माओवादी एजेंडे का विस्तार करना था.
वहीं, बचाव पक्ष के वकील रोहन नाहर ने पुणे पुलिस द्वारा अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट लगाने पर सवाल उठाए.
नाहर ने अदालत में कहा, "हाईकोर्ट के फ़ैसले ने भी साफ़ किया है कि किसी प्रतिबन्धित संस्था का सदस्य होना भर अपने आप में कोई अपराध नहीं है."
अरुण फ़रेरा ने अपने पक्ष में तर्क देते हुए कहा कि जिन इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसों की बात की जा रही है वो चार महीने पहले बरामद हुई थीं और वो तथाकथित चिट्ठियां लिखने वाले भी पहले ही गिरफ़्तार किए जा चुके हैं.
उन्होंने कहा, "जब हमारे घरों पर छापे पड़े तो हमने इसका विरोध नहीं किया बल्कि पुलिस और अधिकारियों का सहयोग किया. हमें पुलिस हिरासत में रखने की कोई ज़रूरत नहीं है."
गोंज़ाल्विस के वकील राहुल देशमुख ने कहा कि यलगार परिषद का आयोजन खुले आसमान के नीचे हुआ था और यह एक सार्वजनिक कार्यक्रम था. उन्होंने पूछा कि इस तरह के कार्यक्रम में कोई साज़िश कैसे रची जा सकती है.
देशमुख ने कहा, "पुलिस ने एक कहानी गढ़ी है. अगर चिट्ठियों में उनका नाम आया है तो इसका मतलब ये नहीं कि उन्होंने कोई अपराध किया है."
तक़रीबन ढाई घंटे चली बहस के बाद अदालत ने कार्यवाही थोड़ी देर के लिए रोकी और तभी सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ गया कि कार्यकर्ताओं को हिरासत में नहीं लिया जा सकता.
दोबारा सुनवाई शुरू होने पर अदालत ने पुलिस को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए अभियुक्तों को घर में नज़रबंद करने को कहा.

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